वरिष्ठ पत्रकार तथा 'द प्रिंट' के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने दैनिक भास्कर में प्रकाशित लेख में कहा कि सड़कों पर निकले कामगारों को समझने में असफल रहा देश। सरकार सोचती रही कि उन्हें कुछ नगदी और मदद चाहिए, हमने सोचा कि उन्हें भोजन की जरूरत। शेखर गुप्ता लिखते हैं कि हम लोग कामकाजी वर्ग को अक्सर उनकी - कमीज के कॉलर के रंग के हिसाब से वर्गीकृत करते हैं, जैसे सफेद कॉलर और नीला कॉलर। लेकिन हमारे राजमार्गों पर आज जो दुखद तस्वीर दिख रही है, उससे लगता है कि श्रमिकों का एक तीसरा वर्ग भी है। जिसे हम कॉलर रहित कामगार कह सकते हैं। ये वे लोग हैं, जो हमारी दैनिक जिंदगी को सुरक्षित और आसान बनाते हैं। ट्रकों से ईंट, सीमेंट और स्टील उतारने, चढ़ाने वाले यही लोग हैं। निर्माण स्थलों पर काम करने वाले, हमारे कपड़ों पर इस्तरी करने वाले, हमारी बगिया के रखवाले, रिक्शा वाले, हमारे बाल काटने वाले, हलवाई की दुकान पर समोसे और जलेबी बनाने वाले यही लोग हैं। काम के दौरान आपने इन्हें कमीज में कितनी बार देखा है? कमीज से इनका काम बाधित होता है, इसलिए वे काम करते समय कमीज उतार देते हैं। वे बनियान या टीशर्ट में काम करते हैं। लेकिन, इससे उनका काम कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता। उनके बिना हमारा काम नहीं चलता। हम सबको प्रेस वाले, माली, रद्दी वालों और कचरा उठाने वालों तक की कमी महसूस होती है। यह तीसरा वर्ग जो अब तक नजर नहीं आता था, बाकी दोनों कॉलर वाले वर्गों से अधिक बड़ा है। हम इन्हें अब तक इसलिए नोटिस नहीं कर पाए, क्योंकि वे हमारी जिंदगी में इतने घुले हुए थे कि हम उन्हें बहुत ही हल्के में ले रहे थे, क्योंकि वे चुप थे। वे अब बोल रहे हैं और अपनी मौजूदगी का अहसास करा रहे हैं। इनमें अनेक लोग अपने बच्चों को लेकर जा रहे हैं, आगरा के बाहर एक बच्चा तो एक सूटकेस पर लटका था। कुछ लोग बुजुर्ग मां-बाप को अपने कंधों पर उठाए चले जा रहे हैं। कुछ महिलाओं ने रास्ते में ही संतान को जन्म दे दिया और कुछ सफर में ही मर गए। किसी को ट्रक या ट्रेन ने रौंदा तो कोई बीमारी से मरा। अच्छी बात यह है कि अब हम सभी इस वर्ग की मदद करना चाहते हैं। बुरी यह है कि हम अब तक मामले को ढंग से समझ नहीं पा रहे। इसलिए हमारे उपाय भी गलत हैं। खाने के पैकेट, पुराने कपड़े देना, उनके लिए दुखी होना, सोशल मीडिया पर अपना दुख प्रकट करना पाखंड ही तो है। अगर आप इन कामगारों से पूछेगे कि वे शहरों में क्या कर रहे थे और उस काम के लिए वे कितना कमा रहे थे, तब आपको पता चलेगा कि आप कितने गलत थे। ट्रक पर माल चढ़ाने-उतारने का काम करने वाला श्रमिक एक दिन में 500 से 1,000 रुपए तक कमाता है। जाहिर है, उनके काम के घंटे भी आठ नहीं होते। इन्हें हम अकुशल श्रमिक कहते हैं। दर्जी, नाई, बढ़ई जैसे थोड़े कुशल कामगार भी इससे कहीं अधिक कमाते हैं। वे एकदम वंचित, भूखे और असहाय नहीं हैं. जो तीन वक्त भोजन मिलने को ही खुशकिस्मती मानते हों। यह तो उनके पास था। वे बेहतर जीवन की तलाश में यहां आए थे। गांवों से नगरों व नगरों से महानगरों की ओर पलायन काफी हद तक वैसा ही है, जैसे किसी इंजीनियर को 'एच 1 बी' वीसा और ग्रीन कार्ड की चाहत होती है। इन कामगारों से पूछिए कि वे शहर क्यों आए? वे अपने कमाए धन से क्या करते हैं? आपको जो उत्तर मिलेंगे वे काफी हद तक ऐसे हो सकते हैं- खुद की, बच्चों की और परिवार की जीवन दशा सुधारने। कुछ अतिरिक्त कमाने जिसे बचाकर घर भेजा जा सके और बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके। अपने घरों को लौट रहे लाखों लोग भिखारी नहीं हैं। वे देश के आकांक्षी कामगार वर्ग की नई पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं, जिनके स्वाभिमान और आत्मसम्मान को अचानक ठेस लगी है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार चोट इन्हें पहुंचा रही है। उन्हें पता है कि गलत हो चुका है। देश के हर इलाके से ऐसी तस्वीरें और आवाजें आ रही हैं। खासकर हिंदी प्रदेशों से जहां उनके सर्वाधिक मतदाता हैं। सरकार ने भी उन्हें गलत समझा और ऐसा माना कि उन्हें सिर्फ थोड़ा धन और तात्कालिक मदद की जरूरत होगी। सरकार यह समझ नहीं पाई कि अचानक लॉकडाउन से इनकी जिंदगी पूरी तरह बाधित हो जाएगी। हमने इसे कितना गलत समझा। इसे समझने के लिए अपनी कॉलोनी के गेट पर खड़े सुरक्षा गार्ड को देखिए, जो आपका गेट बंद करता है और अवांछित आगंतुकों को रोकता है। वे क्यों अपने घरों को नहीं लौट रहे? क्या वे अपने परिवार को लेकर चिंतित नहीं हैं? क्या उन्हें वायरस का खौफ नहीं है? क्या वे गरीब नहीं हैं? उन पर ये सारी बातें लागू होती हैं। वे केवल इसलिए रुके हैं, क्योंकि उनको वेतन मिलना तय है। इनमें से ज्यादातर लोग दो शिफ्ट में काम करते हैं और एक कमरे में दर्जनभर लोग रहते हैं, ताकि घर भेजने के लिए धन बचा सकें। अंतर केवल यह है कि उनके नियोक्ताओं ने उन्हें काम से नहीं निकाला है। अगर बाकियों को भी कुछ सप्ताह तक आजीविका बने रहने का आश्वासन मिल जाता तो शायद करोड़ों लोग इस परेशानी से और हमारा देश वैश्विक शर्मिंदगी से बच जाता।
खास बात यह है कि इसमें जूम की तरह 40 मिनट की समयसीमा नहीं है नई दिल्ली। फेसबुक और इन्टेल जैसी कंपनियों को अपने डिजिटल कारोबार में हिस्सेदारी बेचकर अरबों डॉलर जुटाने के बाद अब रिलायंस इंडस्ट्रीज ने जूम को टक्कर देने की तैयारी की है। मुकेश अंबानी की कंपनी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऐप ‘जियोमीट’ पेश की है, जिसमें असीमित मुफ्त कॉलिंग की सुविधा मिलेगी। रिलायंस के इस कदम को प्रतिद्वंद्वी जूम के साथ ‘कीमत युद्ध’ के रूप में देखा जा रहा है। बीटा परीक्षण के बाद जियोमीट वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऐप एंड्रॉयड, आईओएस, विंडोज, मैकओएस और वेब पर गुरुवार शाम से उपलब्ध ’है। कंपनी की वेबसाइट के अनुसार जियोमीट पर एचडी ऑडियो और वीडियो कॉल की गुणवत्ता मिलेगी। इसमें एक साथ 100 लोगों को जोड़ा जा सकता है। इसमें स्क्रीन साझा करने, पहले से बैठक का समय तय करने और अन्य फीचर्स है। खास बात यह है कि इसमें जूम की तरह 40 मिनट की समयसीमा नहीं है। कंपनी ने दावा किया कि इसमें कॉल्स 24 घंटे तक जारी रखी जा सकती है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग बैठक ‘कूटलेखन’ और पासवर्ड से संरक्षित रहेगी। कंपनी के सूत्रों ने कहा कि जूम पर 40 मिनट से अधिक की ...